Blog-Post-For_--Makar-Sakranti-in-Jharkhand
सूर्य की धनु राशि को छोड़ कर मकर राशि में प्रवेश करने और खेतों में तैयार हुर्इ नर्इ फसल के स्वागत में जब भारतवर्ष के लोग मकर सक्रांति का पावन त्यौहार मनाते है तब जंगलों और पहाड़ों के राज्य झारखण्ड के मूल निवासी ग्रामीण, आदिवासी अपनी बेटी टुशुमनी के बलिदान की याद में इस राज्य का पारंपरिक त्यौहार टुशु मनाते है। हालाँकि टुशु का त्यौहार मुख्यत: झारखण्ड की धरती पर मनाया जाता है मगर साथ के राज्य उड़ीसा और बंगाल के भी कर्इ क्षेत्रों में इसकी धूम देखने को मिलती है। बंगाल के जिले पुरूलिया, बांकुड़ा, मीदनापुर आदि जगहों पर लोग इस त्यौहार का मजा लेते देखे जा सकते हैं। वही उड़ीसा के जिले मयूरभंज, क्यौझर और सुरदगढ़ में भी टुशु पर्व की अच्छी खासी रौनक देखने को मिलती है। रेलयात्री डाटइन पर पढि़ए टुशु पर्व और टुशुमनी के बलिदान की-
कौन थी टुशुमनी?
प्रचलित लोक कथा के अनुसार टुशुमनी का जन्म पूर्वी भारत के कुर्मी किसान समुदाय में हुआ था। झारखण्ड की सीमा के नजदीक उडि़सा के मयूरभंज जिले की रहने वाली टुशुमनी देखने में बेहद खूबसूरत थी जिस कारण उसकी चर्चा हर तरफ थी। 18वीं सदी में बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के कुछ सैनिक भी उसकी खूबसूरती के खासे दीवाने थे। उन्होंने गलत नियत से टुशुमनी का अपहरण कर लिया मगर जैसे ही यह खबर बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को मिली तो वे अपने सैनिको से बेहद नाराज हुए तथा टुशुमनी को ससम्मान वापस घर भेज दिया। साथ ही अपने उन सभी सैनिकों को कड़ा दंड भी दिया। मगर मौजूद रूढ़ीवादी समाज ने टुशुमनी की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लगा कर उसे स्वीकार करने से मना कर दिया। इस घटना से दुखी टुशुमनी ने अपनी पवित्रता का प्रमाण अपनी जान देकर दिया। उसने पास की दामोदर नदी में डूब कर अपने प्राण त्याग दिए। कहा जाता है की उस दिन मकर संक्राति थी इस घटना ने पूरे कुर्मी समाज को दुखी कर दिया विशेष कर महिलाओं और जवान लड़कियों को। कुर्मी समाज ने तब से अपनी बेटी के बलिदान की याद में टुशु पर्व मनाना शुरू किया। जिसे आज झारखण्ड के आदिवासी, अन्य जनजाति के अलावा वहाँ बसे बाकी जातियों के लोग भी मनाते है। इस दौरान झारखण्ड में सरकारी अवकाश भी रहता है।
क्या होता है टुशु पर्व के दौरान?
झारखण्ड के ग्रामीण क्षेत्रों में टुशुमनी की मिटटी की मूर्ति बना कर उसकी पूजा मकर संक्राति के लगभग एक महीने पहले पौष के महीने से शुरू हो जाती है। जब यहाँ के ग्रामीण आदिवासी, कुर्मी समाज के घर-घर में टुशुमनी की छोटी बड़़ी मूर्ति स्थापित कर उसे पूजा जाता है। हालाँकि इसका कोर्इ स्थायी मंदिर कहीं नहीं है। इस पर्व का समापन मकर संक्राति के दिन बडे़ भव्य तरीके से मूर्ति को स्थानीय नदी में प्रवाहित कर किया जाता है। समापन के दिन युवतियों द्वारा टूशूमनी का श्रृंगार कर एक सुंदर सा कार्डबोर्ड, रंगीन एवं चमकीले कागज़ से सजाया एक बेहद आकर्षक पालकीनुमा मंदिर बनाया जाता है। कर्इ दल तो 10 फीट तक के बडे़ एवं खूबसूरत पालकी भी बनाते है। इसे बनाने का काम सिर्फ कुंवारी लड़कियां ही करती है। नदी ले जाने के दौरान स्थानीय लोग नाचते हुए टुशु के पारंपरिक गीत गाते नज़र आते है। अपने पारंपरिक टुशु गीतों में वें टुशुमनी के प्रति सम्मान एवं संवेदना को दर्शाते है। जिसे वे अपनी पवित्र देवी मानते है। नदी के तट पर देवी टुशुमनी की प्रार्थना के बाद उसकी प्रतिमा को नदी में विसर्जित कर दिया जाता है। इस अवसर पर स्थानीय लोग अपने घरों में गुड़, चावल और नारियल से बनी एक खास मिठार्इ, पीठा बनाते है। इसके अलावा इस दौरान अपने मनोंरंजन के लिए यहां के गाम्रीण लोग गाम्रीण क्षेत्रों में मुर्गा लड़ार्इ की प्रतियोगिता एवं हब्बा-डब्बा (एक प्रकार का पारंपरिक जुआ) का खेल भी खेला जाता है। साथ ही पारंपरिक दारू हडि़या का सेवन भी किया जाता है। आदिवासी बहुल राज्य होने के कारण राज्य के अलग-अलग गांवों व कस्बों में कर्इ दिनों के लिए टुशु मेला का आयोजन भी किया जाता है। इस अवसर पर राजनीतिक दलों, सामाजिक संगठनों एवं राज्य सरकार द्वारा विभिन्न प्रतियोगिताओं का आयोजन भी करवाया जाता है
 दिल्लीमुम्बर्इकोलकाता एवं चैन्नर्इ के अलावादेश के कर्इ शहरों से झारखण्ड की राजधानी रांचीसहित राज्य के अलग-अलग शहरों के लिए सीधीरेलसेवा उपलब्ध है।